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These home remedies relieve oily skin: Home Remedies for Oily Skin by social worker Vanita Kasani Punjab4Nowadays oily skin problem is very common. Skin oil

तैलीय त्वचा (ऑयली स्किन) से छुटकारा दिलाते हैं ये घरेलू उपाय : Home Remedies for Oily Skin By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब

आजकल तैलीय त्वचा (ऑयली स्किन) की समस्या बहुत आम हो गई है। त्वचा के तैलीय हो जाने के कारण मुँहासे, व्हाइटहेड्स, ब्लैकहेड्स की समस्या होने लगती है। आपकी त्वचा कैसी है यह मुख्य रूप से तीन बातों पर निर्भर करता है। ये तीनों चीजें है- लिपिड का स्तर, पानी और संवेदनशीलता। इस लेख में हम तैलीय त्वचा से छुटकारा पाने के आसान उपाय (Oily skin care tips) बता रहे हैं।

 

Oily Skin

 

तैलीय त्वचा में लिपिड का स्तर, पानी और वसा की मात्रा ज्यादा होती है। तैलीय त्वचा में सामान्य त्वचा की तुलना में पाये जाने वाले सेबेसियस ग्लैंड ज्यादा सक्रिय होते हैं। तैलीय त्वचा होने की ज्यादा संभावना हार्मोनल बदलाव की वजह से होती है। कई बार जीवनशैली भी तैलीय त्वचा के लिए जिम्मेदार होती है। कुछ लोगों में प्राकृतिक रूप से तैलीय त्वचा पाई जाती है। तैलीय त्वचा में रोमछिद्र सामान्य त्वचा से ज्यादा बड़े पाये जाते हैं।

 

तैलीय त्वचा (ऑयली स्किन) क्या है? (What is Oily skin in Hindi?)BAL Vnita mahila ashram

कफ दोष तैलीय त्वचा के लिए जिम्मेदार होता है। तैलीय त्वचा मोटी तथा बड़े रोमछिद्र लिए हुए होती है। किन्तु तैलीय त्वचा में झुर्रियाँ शुष्क तथा सामान्य त्वचा की अपेक्षा देर से पड़ती है। इसे कफज त्वचा भी कहा जा सकता है। तैल की अधिकता होने से इसमें गन्दगी और धूल जल्दी जमा हो जाते है जिससे रोमछिद्र बंद होने की संभावना रहती है इसलिए इस त्वचा में मुँहासे, ब्लैक हैड्स, व्हाइट हैड्स ज्यादा होते हैं।

त्वचा की प्रकृति जन्म से ही होती है अत: तैलीय त्वचा को ख़ास देखभाल की जरूरत (Oily Skin Care) होती है। सामान्यत: किसी व्यक्ति की त्वचा यदि जन्म से तैलीय, शुष्क या सामान्य है तो वह वैसी ही रहती है परन्तु कुछ अवस्थाओं में जैसे; महिलाओं में होने वाले हार्मोनल बदलाव या अनुचित आहार-विहार, इनके कारण सामान्य त्वचा भी कुछ समय के लिए तैलीय त्वचा में परिवर्तित हो सकती है। यहां तैलीय त्वचा को दूर करने के उपाय बहुत ही आसान शब्दों (oily skin care in hindi) में लिखे गए हैं ताकि आप इसका पूरा लाभ ले पाएं।

और पढ़ें :  मुंहासे दूर करने के घरेलू उपचार 

 

ऑयली स्किन होने के कारण (Causes of Oily skin in Hindi)

ऑयली स्किन या तैलीय त्वचा जन्म से होता है या बहुत सारे वजहों से भी होता है। चलिये आगे इसके बारे में जानते हैं।

  • बदलते मौसम के कारण भी त्वचा तैलीय हो सकती है।
  • कुछ में अनुवांशिक रूप से त्वचा तैलीय रहती है।
  • शरीर में होने वाले हार्मोनल परिवर्तन तैल के उत्पादन के लिए मुख्यत जिम्मेदार होते हैं। महिलाओं में एण्ड्रोजन हार्मोन सम्पूर्ण जीवन में घटता-बढ़ता रहता है। जैसे रजोनिवृन्ति से पहले या गर्भावस्था के दौरान। यह वसामय ग्रन्थियों को तेल का उत्पादन करने के लिए प्रोत्साहित करता है। तैलीय त्वचा का एक प्रमुख कारण है हार्मोनल असंतुलन। हार्मोनल असंतुलन, पुरुषों में टेस्टोस्टेरोन हार्मोन को बहुत अधिक सक्रिय कर देता है जिसके कारण अत्यधिक तेल उत्पन्न होता है।

 

अधिक तनावपूर्ण जीवन जीने से, तनाव के समय हमारी त्वचा से अतिरिक्त एण्ड्रोजन हार्मोन का उत्पादन होता है जो तैलीय त्वचा का बहुत बड़ा कारण है। कई जगह तैलीय त्वचा अस्वस्थ जीवनशैली का परिणाम भी होती है।

  • महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान एस्ट्रोजन हार्मोन में तेजी से उतार-चढ़ाव होते हैं। इससे वसामय ग्रन्थियाँ नियंत्रण से बाहर हो जाती हैं और अत्यधिक तैल का उत्पादन करने लगती है। बहुत सी गर्भवती महिलाओं में सामान्य त्वचा की तुलना में तैलीय त्वचा हो जाती है लेकिन इसमें चिन्ता की बात नहीं है क्योंकि प्रसव के बाद यह दोबारा पहले जैसी हो जाती है। बस तैलीय त्वचा की साफ़ सफाई पर ध्यान रखें. 

 

  • हार्मोनल गर्भनिरोधक दवाओं और हार्मोन रिप्लेसमेंट दवाओं के कारण त्वचा से तैल उत्पादन बढ़ जाता है। इसी तरह किसी भी दवा के प्रभाव से निर्जलीकरण हो सकता है जो तैल के उत्पादन को बढ़ाता है ताकि डिहाइड्रेशन के समय आपकी त्वचा में नमी की कमी न हो इसलिए त्वचा स्वयं नमी पैदा कर लेती है जो ऑयल के रूप में उत्पन्न होता है।

 

  • सल्फर एक अन्य खनिज है जो तैल के उत्पादन को कम करता है। यह नट्स, फलियाँ, गोभी, प्याज और ब्रोकोली में पाया जाता है। सल्फर त्वचा के लिए अच्छा होने के अलावा, कैंसरजनक कारणों को भी कम करने में मदद करता है। इसलिए सल्फर और ओमेगा-3 युक्त खाद्य पदार्थों की मात्रा अपने खाने में बढ़ाइए। शुगर और कार्बोहाइड्रेट युक्त खाद्य पदार्थों का सेवन कम करें क्योंकि ये सीबम उत्पादन में वृद्धि करते हैं।

 

  • किशोरावस्था में लड़के-लड़कियों में हार्मोन एकदम से घटते-बढ़ते हैं-परिणामस्वरूप अतिरिक्त तैल का उत्पादन होता है। इस समय एण्ड्रोजन हार्मोन का  निकलता है जो त्वचा और बालों के तैलीय होने का बहुत बड़ा कारण है। यह समस्या 18-21 वर्ष तक रहती है जबकि कुछ में यह समस्या उनके वयस्क अवस्था तक रहती है। ऐसे में तैलीय त्वचा की देखभाल (Oily Skin care) करना बहुत ज़रुरी होता है।

 

Oily skin home remedies

 

तैलीय त्वचा से बचाव के उपाय (Oily Skin Care Tips in Hindi)

तैलीय त्वचा के कारण त्वचा पर जो प्रभाव पड़ता है उसके बचाव के लिए इन बातों पर ध्यान देना जरूरी होता है।

  • जिनकी त्वचा तैलीय होती है उनको बाहर से आकर चेहरे को अच्छी प्रकार से साफ करें।
  • चेहरे को अच्छी प्रकार मॉश्चराइज करे ताकि संतुलित रूप में नमी बनी रहे।
  • जंकफूड और अधिक तैलीय एवं मिर्च-मसाले युक्त भोजन का सेवन न करें।
  • नियमित रूप से व्यायाम एवं प्राणायाम करें।
  • धूल एवं धूप से चेहरे का बचाव करें।
  • दिन में 3-4 बार चेहरे को ताजे पानी से धोयें।

और पढ़ें :  रूखी त्वचा की देखभाल करने के घरेलू उपाय By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब

 

तैलीय त्वचा से छुटकारा पाने के घरेलू उपाय (Home Remedies for Oily Skin in Hindi)

अगर आपकी त्वचा तैलीय है तो नीचे बताए गए ऑयली स्किन केयर के उपायों को अपनाएं और त्वचा पर मौजूद अतिरिक्त तेल से छुटकारा पाएं। 

 

तैलीय त्वचा के लिए फायदेमंद दही (Curd: Home Remedies for Oily Skin in Hindi

दही चेहरे के अतिरिक्त तेल को सोखने में मदद करती है। अपने चेहरे पर दही लगाकर 15 मिनट तक छोड़ दे फिर ठण्डे पानी से चेहरा धो लें।

Dahi

और पढ़ें : दही के फायदे और सेवन का तरीका Vnita 

 

ओटमील ऑयली स्किन से दिलाये राहत (Oatmeal: Home Remedies for Oily skin in Hindi

  • बराबर मात्रा में ओटमील, शहद और दही मिलाकर इसे चेहरे पर लगाएँ तथा 15 मिनट तक रख कर गर्म पानी से धो लें।
  • बराबर मात्रा में ओटमील और एलोवेरा लेकर पेस्ट बना (gharelu nuskhe for oily skin) लें। इस पेस्ट से अपनी त्वचा पर हल्के हाथों से मालिश कर के 10-15 मिनट के लिए छोड़ दें फिर पानी से चेहरे को धो लें। यह बहुत ही अच्छा ऑयली स्किन केयर टिप है।

और पढ़ें – त्वचा रोगों में सेब के फायदे

खीरे की मदद से लाएं त्वचा में निखार (Cucumber: Home Remedies for Oily Skin in Hindi)

रात को सोने से पहले खीरे की एक स्लाइस से त्वचा पर मालिश कर के छोड़ दें। सुबह त्वचा को गर्म पानी से धो लें।

और पढ़ें : खीरा खाने के फायदे और नुकसान 

 

हल्दी का मिश्रण तैलीय त्वचा के लिए लाभकारी (Turmeric Mixture: Home Remedies for Oily Skin in Hindi) 

  • एक चौथाई चम्मच हल्दी पाउडर, आधा चम्मच नींबू का रस और एक चम्मच शहद मिलाकर पेस्ट तैयार कर लें। इसे चेहरे पर लगाकर सूखने दें जब यह सूख जाए तो गुनगुने पानी से चेहरा धो लें। ऑयली स्किन केयर के लिए आप इस उपाय को आजमा सकती हैं।
  • एक चम्मच चन्दन पाउडर, दो चम्मच बेसन, आधा चम्मच हल्दी पाउडर, दो बूँद रोज ऑयल, दो बूँद लैवंडर ऑयल तथा एक चम्मच दूध, सबको मिलाकर पेस्ट बना (gharelu nuskhe for oily skin) लें। इसे चेहरे पर लगाएँ तथा सूखने पर गुनगुने पानी से धो लें।

और पढ़ें – त्वचा रोग में शाल के फायदे

 

Haldi face pack

और पढ़ें : हल्दी के फायदे और नुकसान 

 

नींबू ऑयली स्किन के लिए फायदेमंद (Lemon: Home Remedies for Oily Skin in Hindi)

एक चम्मच नींबू का रस, आधा चम्मच शहद और एक चम्मच दूध लेकर मिलाएँ। इस पेस्ट को चेहरे पर लगाकर 10-15 मिनट के लिए छोड़ दें फिर ठंडे पानी से धो लें।

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आटा तैलीय त्वचा के लिए फायदेमंद (Wheat Flour Mixture: Oily Skin Home Remedies in Hindi) 

एक चम्मच गेहूँ का आटा, एक चम्मच शहद और दो चम्मच दही मिलाकर गाढ़ा लेप बनाएँ। इस लेप को हफ्ते में दो बार चेहरे पर लगाने से तैलीय त्वचा निखर उठती है।

और पढ़ें – त्वचा रोग में लोहबान के फायदे

 

तैलीय त्वचा में टमाटर के फायदे (Tomato: Home Remedies for Oily Skin in Hindi)

टमाटर में ऑयल एब्सॉर्बिंग एसिड होता है जो त्वचा के अतिरिक्त तेल को सोखने में मदद करता है। टमाटर के एक टुकड़े से त्वचा की तब तक मसाज करें जब तक त्वचा उसका जूस न सोख ले फिर 15 मिनट तक रखकर ठण्डे पानी से धो लें।

 

tomato benefits for oily skin

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संतरे का छिलका तैलीय त्वचा में फायदेमंद (Orange Peel: Oily Skin Home Remedies in Hindi)

तीन चम्मच संतरे के छिलके का पाउडर, चार चम्मच दूध, एक चम्मच नारियल का तेल तथा दो से चार चम्मच गुलाबजल मिलाकर पेस्ट बना लें। 15-20 मिनट तक इसे चेहरे पर लगाकर धो लें।

 

ग्रीन टी ऑयली स्किन में फायदेमंद (Green Tea : Oily Skin Home Remedies in Hindi) 

ग्रीन टी पीने के साथ-साथ चेहरे पर लगाने से भी लाभ करती है। इसमें पॉलीफोलिक और एन्टी इंफ्लैमटोरी गुण पाए जाते हैं जो त्वचा सम्बन्धी रोगों से हमारी रक्षा करते हैं। दो चम्मच ग्रीन टी, एक चम्मच नींबू का रस, एक चम्मच चावल का आटा लेकर पेस्ट बना ले। 15-20 मिनट तक इसे चेहरे पर लगाएँ रखें। इसके बाद चेहरे को ताजे पानी से धो लें।

और पढ़ें : चाय पीने के फायदे 

 

मेथी तैलीय त्वचा के लिए लाभकारी (Fenugreek Mixture : Oily Skin Home Remedies in Hindi)

2-3 चम्मच मेथी के दानों को लेकर रातभर भीगने के लिए रख दें। अगली सुबह इसे पीस कर पेस्ट बना लें, इससे चेहरे पर थोड़ी देर मालिश कर सूखने के लिए छोड़ दें। सूख जाने पर ठण्डे पानी से धो लें।     

और पढ़ेंः मेथी के फायदे और नुकसान

 

मुल्तानी मिट्टी ऑयली स्किन के लिए गुणकारी (Multani Mitti : Home Remedies for Oily Skin in Hindi)

  • मुल्तानी मिट्टी और पानी मिलाकर पेस्ट बना लें। इस पेस्ट को चेहरे पर लगाकर सूखने दें। पूरी तरह सूखने के बाद पानी से धो लें।
  • मुल्तानी मिट्टी और आधा चम्मच नींबू का रस या संतरे का रस मिलाकर पेस्ट बना लें। इस पेस्ट को चेहरे पर लगाकर सूखने दें। पूरी तरह सूखने के बाद ठण्डे पानी से चेहरे को धो लें। यह लाभ (gharelu nuskhe for oily skin)पहुंचाता है।

 

Multani Mitti

 

तैलीय त्वचा से राहत दिलाए गुलाब जल (Use Rose water for Oily Skin in Hindi)

अगर आप त्वचा तैलीय है तो गुलाबजल का इस्तेमाल करना आपके लिए फायदेमंद है. त्वचा पर जमी तेल की मात्रा को कम करने के लिए दिन में एक से दो बार गुलाब जल से चेहरे को साफ़ करें. कॉटन का एक टुकड़ा लें और उसे गुलाब जल से भिगोकर चेहरे को साफ़ करें, रात में सोने से पहले ऐसा करना ज्यादा असरदार माना जाता है.  

मसूर की दाल से पाएं ऑयली स्किन से छुटकारा (Masoor Dal Benefits to get rid of Oily Skin in Hindi)

मसूर की दाल का लेप लगाने से त्वचा पर जमी तेल की मात्रा में कमी आती है. अगर आपकी त्वचा तैलीय है तो मसूर की दाल का लेप बनाएं और उसमें थोड़ा सा गुलाबजल मिला लें. अब इसे चेहरे पर कुछ देर लगा रहनें दो और फिर सादे पानी से धो लें. 

तैलीय त्वचा से बचाव में उपयोगी है नीम (Uses of Neem for Oily Skin in Hindi)

नीम के औषधीय फायदों के बारे में तो हम सब जानते ही है लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि नीम का उपयोग आप ख़ूबसूरती बढ़ाने के लिए भी कर सकते हैं. आयुर्वेद के अनुसार नीम में रुक्षता का गुण होता है जो त्वचा के तैलीयपन को कम करने में मदद करता  यह त्वचा का तैलियेपन कम करने में सहायता करता है।

ऑयली स्किन से छुटकारा दिलाती है शहद (Use Honey to get rid of Oily Skin in Hindi)

नीम की ही तरह शहद में भी रुक्षता का गुण होता है जो तेल की मात्रा को नियंत्रित रखने में मदद करता है. इसलिए अगर आपकी त्वचा तैलीय है तो चेहरे पर शहद लगाएं और कुछ देर बाद धो लें. ऐसा कुछ दिन करने से त्वचा का तैलीयपन काफी कम हो जाता है. 

ऑयली स्किन में फायदेमंद है बेसन (Besan : Home Remedies for Oily Skin in Hindi)

आयुर्वेदिक विशेषज्ञों का कहना है कि बेसन में भी रुक्षता का गुण होता है और इस वजह से यह त्वचा के तैलीयपण को नियंत्रित रखने में मदद करता है. इसलिए अपना फेसपैक बनाते समय उसमें थोड़ी मात्रा में बेसन ज़रुर मिलाएं. 

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लाल या काले अंगूर के मस्ट (पल्प-गूदे) से बनाया जाता है जिसे अंगूर के छिलके के साथ फर्मेंटेशन (किण्वन) के लिए भेजा जाता है। व्हाइट वाइन को फर्मेंटिंग जूस से तैयार किया जाता है जिसके लिए पिसे हुए अंगूरों को दबाकर उनका रस निकाल लिया जाता है; छिलकों को हटा दिया जाता है और उनका अन्य कोई इस्तेमाल नहीं होता है। कभी-कभी व्हाइट वाइन को लाल अंगूर से बनाया जाता है, इसके लिए अंगूर के छिलकों की कम से कम मात्रा के साथ इनका रस निकाल लिया जाता है। रोज़ वाइन को लाल अंगूरों से तैयार किया जाता है जहाँ रस को गहरे रंग के छिलकों के संपर्क में केवल उतनी देर के लिए रखा जाता है ताकि वह उसके गुलाबी रंग को तो ग्रहण कर सके लेकिन छिलकों में पाए जाने वाले टैनिन से बचा रहे.प्राथमिक फर्मेंटेशन (किण्वन) की प्रक्रिया शुरू करने के लिए यीस्ट (खमीर) को रेड वाइन के लिए मस्ट (पल्प) या व्हाइट वाइन के लिए जूस में मिलाया जाता है। इस फर्मेंटेशन के दौरान, जिसमें अक्सर एक और दो सप्ताह के बीच का समय लगता है, खमीर अंगूर के रस में मौजूद अधिकाँश शर्करा को इथेनॉल (अल्कोहल) और कार्बन डाइऑक्साइड में बदल देता है। कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में मिल जाता है। लाल अंगूरों के प्राथमिक किण्वन के बाद मुक्त रूप से प्रवाहित हो रही वाइन को पंप के जरिये टैंकों में डाला जाता है और बचे हुए रस और वाइन को निकालने के लिए छिलकों को दबाया जाता है, दबाकर निकाली गयी गयी वाइन को वाइन निर्माताओं की इच्छानुसार मुक्त रूप से प्रवाहित वाइन के साथ मिला दिया जाता है। वाइन को गर्म रखा जाता है और बची हुई शर्करा वाइन और कार्बन डाइऑक्साइड में तब्दील हो जाती है। रेड वाइन तैयार करने में अगली प्रक्रिया सेकंडरी फर्मेंटेशन है। यह एक जीवाणु आधारित फर्मेंटेशन है जो मैलिक एसिड को लैक्टिक एसिड में बदल देती है। यह प्रक्रिया वाइन में एसिड की मात्रा को घटा देती है और वाइन के स्वाद को हल्का कर देती है। कभी-कभी रेड वाइन को परिपक्व होने के लिए कुछ हफ़्तों या महीनों के लिए ओक बैरलों में स्थानांतरित कर दिया जाता है, इस उपाय से ओक की गंध वाइन से अलग हो जाती है। परिष्कृत करने और बॉटलिंग से पहले वाइन को अनिवार्य रूप से व्यवस्थित या स्वच्छ कर इनका समायोजन किया जाना चाहिए.कटाई से लेकर पीने तक के समय में ब्यूजोलैस नोव्यू वाइन के लिए कुछ समय और उच्च कोटि की वाइन के मामलों में बीस वर्षों से अधिक का अंतर हो सकता है। हालांकि सभी रेड वाइनों में से केवल 10% और व्हाइट वाइनों में से केवल 5% का स्वाद केवल एक वर्ष बाद की तुलना में पाँच वर्षों के बाद कहीं बेहतर होगा.[1] अंगूर की गुणवत्ता और लक्षित वाइन की शैली के आधार पर वाइन निर्माता के किसी विशेष लक्ष्य को पूरा करने के लिए इनमें से कुछ चरणों को जोड़ा या हटाया जा सकता है। तुलनीय गुणवत्ता वाली कई वाइनों का उत्पादन एक जैसी लेकिन उनके उत्पादन से विशेष रूप से अलग नज़रिए के साथ किया जाता है; गुणवत्ता का निर्धारण शुरुआती सामग्री की विशेषताओं के आधार पर किया जाता है और विनिफिकेशन के दौरान अनिवार्य रूप से उठाये गए कदमों के आधार पर नहीं किया जाता है।[2]उपरोक्त प्रक्रिया में विविधताएं देखी जाती हैं। बुलबुलेदार वाइनों जैसे कि शैम्पेन के मामले में बोतल के अंदर एक अतिरिक्त फर्मेंटेशन की क्रिया होती है जिसमें कार्बन डाइऑक्साइड की ट्रैपिंग की जाती है और विशेष प्रकार के बुलबुले बनाए जाते हैं। स्वीट वाइन (मीठी वाइन) यह सुनिश्चित करते हुए तैयार की जाती है कि फर्मेंटेशन की प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद कुछ अवशिष्ट शर्करा के अवशेष बचे रह गए हैं। इसको कटाई के समय में विलंब करके (लेट हार्वेस्ट वाइन), शर्करा को सांद्रित करने के लिए अंगूरों को शीतलित करके (आइस वाइन) या फर्मेंटेशन की प्रक्रिया पूरी होने से पहले बची हुई खमीर को समाप्त के लिए कोइ चीज मिलाकर किया जा सकता है; उदाहरण के लिए, पोर्ट वाइन तैयार करते समय इसमें हाई प्रूफ ब्रांडी मिलायी जाती है। अन्य मामलों में वाइन निर्माता मीठे अंगूर के रस का कुछ हिस्सा बचाकर रखने का विकल्प चुन सकते हैं और फर्मेंटेशन की प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद इसे वाइन में मिला सकते हैं, इस तकनीक को ससरिजर्व (süssreserve) के रूप में जाना जाता है।इस प्रक्रिया में अपशिष्ट जल, पोमैस और तलछट उत्पन्न होता है जिसके लिए इनके संग्रहण, उपचार और निपटान या लाभप्रद उपयोग की आवश्यकता होती है।अंगूरसंपादित करेंकाबेर्नेट सौविग्न अंगूरों का टुकड़ा.अंगूर की गुणवत्ता किसी भी अन्य पहलू से कहीं अधिक वाइन की गुणवत्ता को निर्धारित करता है। अंगूर की गुणवत्ता इसके प्रकार के साथ-साथ पौधों के बढ़ने के क्रम में मौसम की स्थिति, मिट्टी के खनिजों और इसकी अम्लता, फसल के समय और छँटाई के तरीके से प्रभावित होती है। इन प्रभावों को संयुक्त रूप से अक्सर अंगूरों का टेरॉयर कहकर संदर्भित किया जाता है।अंगूर के बागों से अंगूर की फसल आम तौर पर उत्तरी गोलार्द्ध में सितंबर के आरंभ से लेकर नवंबर की शुरुआत तक या दक्षिणी गोलार्द्ध में फरवरी के मध्य से लेकर मार्च की शुरुआत तक प्राप्त की जाती है।[2] दक्षिणी गोलार्द्ध में कुछ ठंढे क्षेत्रों जैसे कि तस्मानिया, ऑस्ट्रेलिया आदि में मई के महीने तक फसल प्राप्त की जाती है।वाइन बनाने वाले अंगूर की सबसे आम प्रजाति है विटिस विनिफेरा जिसमें यूरोपीय मूल की तकरीबन सभी किस्में शामिल हैं।[2]हार्वेस्टिंग और डीस्टेमिंगसंपादित करेंमुख्य लेख: Harvest (wine)इन्हें भी देखें: Ripeness in viticultureहार्वेस्ट (फसल कटाई) का मतलब है अंगूरों को पौधों से तोड़ना और कई मायनों में यह वाइन उत्पादन का पहला चरण है। अंगूरों को यांत्रिक तरीके से या फिर हाथ से तोड़ा जाता है। अंगूर की फसल प्राप्त करने का निर्णय आम तौर पर वाइन निर्माताओं द्वारा लिया जाता है और इसके लिए शर्करा के स्तर (°ब्रिक्स), एसिड (टारटेरिक एसिड के समकक्षों द्वारा बताये गए अनुसार टीए या टाइट्रेटेबल एसिडिटी) और अंगूर के पीएच (pH) की जानकारी प्राप्त की जाती है। अन्य विचारणीय पहलुओं में शामिल हैं फिनोलोजिकल परिपक्वता, बेरी फ्लेवर, टनीन विकास (बीज का रंग और स्वाद). अंगूर की बेल और मौसम के पूर्वानुमान के की समस्त स्वभाव को ध्यान में रखा जाता है।कॉर्कस्क्रू आकार का फ़ीड औगर, एक यांत्रिक क्रशर/डीस्टेमर के शीर्ष पर.अंगूर के गुच्छों को उसके बाद मशीन में डाला जाता है जहां पहले तो उन्हें दबाया जाता है उसके बाद तने हटाये जाते हैं। तने अंत में निकलते हैं जबकि रस, छिलके, बीज और कुछ अन्य पदार्थ नीचे से बाहर आते हैं।यांत्रिक हार्वेस्टर बड़े ट्रैक्टर होते हैं जिन्हें अंगूर की बेलों की जाफरियों के सामने खड़ा कर दिया जाता है और फिर मजबूत प्लास्टिक या रबर की छड़ का उपयोग कर अंगूर की बेल के फल लगे क्षेत्रों में चोट करते हैं जिससे कि अंगूर रेकिस से अलग हो जाते हैं। यांत्रिक हार्वेस्टर की यह विशेषता होती है कि ये अंगूर के बाग़ के एक बड़े क्षेत्र को अपेक्षाकृत कम समय में कवर करते हैं और हार्वेस्ट किये गए प्रत्येक टन में कामगारों की कम से कम संख्या लगानी पड़ती है। यांत्रिक हार्वेस्टिंग का एक नुकसान यह है कि इस उत्पाद में बाहरी गैर-अंगूर वाली चीजें विशेष रूप से पत्तियों की डालियाँ और पत्तियाँ अंधाधुंध मिलाई जाती हैं, लेकिन साथ ही जाफरी प्रणाली और अंगूर के बेल की कैनोपी के प्रबंधन के आधार पर इसमें खराब अंगूर, केन्स, धातु के मलबे, चट्टानें और और यहाँ तक कि छोटे जानवरों और चिड़ियों के घोंसले शामिल हो सकते हैं। कुछ वाइन निर्माता हार्वेस्ट किये गए फलों में इस तरह की चीजों के मिलने से रोकने के लिए यांत्रिक हार्वेस्टिंग से पहले अंगूर की बेलों से पत्तियों और खुले मलबों को हटा लेते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में फलों को अंधाधुंध तोड़े जाने और अंगूर के रस के ज्यादा ऑक्सीकरण के कारण उच्च कोटि की वाइन तैयार करने के लिए यांत्रिक हार्वेस्टिंग का उपयोग शायद ही कभी किया जाता है। अन्य देशों (जैसे कि ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में) सामान्य श्रमिकों की कमी के कारण आम तौर पर प्रीमियम वाइनग्रेप्स की यांत्रिक हार्वेस्टिंग का उपयोग कहीं अधिक किया जाता है।एक यांत्रिक डेस्टेममिंग का केंद्रीय घटक. छोटे गोलाकार हिस्सों के ऊपर लगे पैडल तने के बड़े टुकड़ों को हटाने के लिए घूमते हैं। अंगूर तने से तोड़ लिए जाते हैं और छिद्र में गिर जाते हैं। एक छोटी मात्रा में तने के टुकड़ों को अंगूर के साथ रखा जाता है ताकि टैनिन संरचना प्राप्त की जा सके.मैनुअल हार्वेस्टिंग का मतलब है अंगूर की बेलों से अंगूर के गुच्छों को हाथ से तोड़ना. संयुक्त राज्य अमेरिका में परंपरागत रूप से अंगूरों को तोड़कर 30 पाउंड के बक्से में डाला जाता है और कई मामलों में इन बक्सों को वाइनरी तक ले जाने के लिए आधे टन या दो टन के डिब्बों में रखा जाता है। मैनुअल हार्वेस्टिंग का फ़ायदा यह है कि इसमें जानकार श्रमिकों का इस्तेमाल ना केवल अंगूर के पके हुए गुच्छों को तोड़ने के लिए बल्कि कच्चे गुच्छों या जिन गुच्छों में सड़े हुए अंगूर या अन्य दोषयुकी गुच्छों को छोड़ने के लिए भी किया जाता है। यह वाइन के एक भण्डार या टैंक को निम्न गुणवत्ता के फल से दूषित होने से रोकने के लिए सुरक्षा का पहला प्रभावी उपाय हो सकता है।डीस्टेमिंग एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अंगूर के तनों को अंगूरों से अलग किया जाता है। वाइन बनाने के तरीके के आधार पर तैयार होने वाली वाइन में टैनिन के विकास और वनस्पति के जायके को कम करने के उद्देश्य से अंगूर को पिसे जाने से पहले यह प्रक्रिया पूरी की जाती है। जैसा कि कुछ जर्मन ट्रोकेनबीयरेनौस्लीज के साथ किया जाता है, सिंगल बेरी हार्वेस्टिंग में इस चरण को नज़रअंदाज किया जाता है और अंगूरों को एक-एक करके चुना जाता है।क्रशिंग और प्राथमिक फर्मेंटेशन (किण्वन)संपादित करेंमुख्य लेख: Fermentation (wine) Vnita punjabक्रशिंग वह प्रक्रिया है जिसमें बेरियों को अच्छी तरह निचोड़ लिया जाता है और बेरियों के तत्वों को अलग करने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए छिलकों को तोड़ा जाता है। डीस्टेमिंग अंगूर के रेकिस (वह तना जिसमें अंगूर लगे रहते हैं) से अंगूरों को अलग करने की एक प्रक्रिया है। पारंपरिक और छोटे-पैमाने पर वाइन बनाने में हार्वेस्ट किये गए अंगूरों को कभी-कभी नंगे पैरों से रौंद कर या सस्ते छोटे स्तर के क्रशरों का इस्तेमाल कर इनकी पिसाई की जाती है। साथ ही साथ इन्हें डीस्टेम भी किया जा सकता है। हालांकि बड़े वाइनरियों में एक यांत्रिक क्रशर/डीस्टेमर का इस्तेमाल किया जाता है। रेड और व्हाइट वाइन तैयार करने के लिए डीस्टेमिंग का निर्णय अलग-अलग तरीके से लिया जाता है। आम तौर पर व्हाइट वाइन बनाते समय केवल फल की पिसाई की जाती है, इसके बाद तनों को बेरियों के साथ प्रेस में रखा जाता है। मिश्रण में तनों की उपस्थिति रस को पहले निकाले गए छिलकों से होकर प्रवाहित कर दबाव डालने की सुविधा प्रदान करती है। ये प्रेस के किनारे पर जमा हो जाते हैं। रेड वाइन तैयार करने के लिए अंगूरों के तनों को आम तौर पर फर्मेंटेशन से पहले निकाल लिया जाता है क्योंकि तनों में टैनिन तत्व की मात्रा अपेक्षाकृत ज्यादा होती है; टैनिन के अलावा ये वाइन को एक वानस्पतिक गंध भी दे सकते हैं (2-मेथॉक्सी-3-आइसोप्रोपाइलपायराजिन के निकलने के कारण, जिसमें हरी बेल मिर्च के जैसी एक गंध होती है।) कई बार जब अंगूरों में स्वयं उम्मीद से कम टैनिन की मात्रा मौजूद होती है तो वाइन निर्माता इन्हें छोड़ देने का निर्णय ले सकते हैं। यह तब और अधिक स्वीकार्य हो जाता है जब तने "पके हुए" होते हैं और भूरे रंग में बदलना शुरू हो जाते हैं। अगर अधिक मात्रा में छिलके निकालने की जरूरत होती है तो वाइन निर्माता डीस्टेमिंग के बाद अंगूरों की पिसाई का विकल्प चुन सकता है। तनों को पहले निकालने का मतलब है तनों के टैनिन को निकाला नहीं जा सकता है। इन मामलों में अंगूरों को दो रोलरों के बीच से गुजारा जाता है जो अंगूरों को इतना निचोड़ लेते हैं कि इनके छिलके और पल्प अलग-अलग हो जाते हैं लेकिन इतना अधिक भी नहीं कि छिलकों के उत्तकों में जरूरत से ज्यादा टूट-फूट या काट-छांट हो जाए. कुछ मामलों में आंशिक कार्बनिक मैसरेशन के जरिये फल जैसी सुगंध को बरकरार रखने को प्रोत्साहित करने के लिए उल्लेखनीय रूप से "नाजुक" रेड वेरियेटल्स जैसे कि पीनॉट नॉयर या साइरा के मामले में अंगूरों के पूरे या कुछ हिस्से को बगैर पिसा हुआ छोड़ दिया जाता है (जिसे "होल बेरी" कहते हैं).क्रशर से बाहर निकलते हुए कुचले गए अंगूर.ज्यादातर रेड वाइन अपना रंग अंगूर के छिलकों से प्राप्त करते हैं (इसका अपवाद नॉन-विनिफेरा वाइन्स की किस्में या हैब्रिड्स हैं जिनमें डार्क माल्विदिन 3,5-डाइग्लूकोसाइड एंथोसायनिन के धब्बों के साथ रस मौजूद होते हैं) और इसीलिये रंग को निकालने के लिए रस और छिलके के बीच संपर्क होना आवश्यक है। रेड वाइन अंगूरों की डीस्टेमिंग और क्रशिंग कर एक टैंक में तैयार की जाती है और फर्मेंटेशन (मैसरेशन) की सम्पूर्ण प्रक्रिया के दौरान छिलकों को रस के संपर्क में रहने दिया जाता है। बगैर पिसे हुए फलों पर बहुत तेजी से दबाव डालकर (फास्टिडियस प्रेसिंग) लाल अंगूरों से सफ़ेद (रंगहीन) वाइन को तैयार किया जा सकता है। इससे अंगूर के रस और छिलकों के बीच संपर्क कम हो जाता है (जैसा कि ब्लैंक डी नॉयर्स बुलबुलेदार वाइन बनाने में किया जाता है जिसे एक लाल विनिफेरा अंगूर, पिनॉट नॉयर से तैयार किया जाता है।)ज्यादातर व्हाइट वाइन डीस्टेमिंग या क्रशिंग के बगैर तैयार किये जाते हैं और इन्हें उठाने वाले डब्बों से सीधे प्रेस में स्थानांतरित कर दिया जाता है। ऐसा छिलकों या अंगूर के बीजों से किसी भी तरह टैनिन को निकलने से बचाने के साथ-साथ खुली हुई बेरियों की बजाय अंगूर के गुच्छों के एक मैट्रिक्स के जरिये रस के समुचित प्रवाह को कायम रखने के लिए किया जाता है। कुछ परिस्थितियों में वाइन निर्माता सफ़ेद अंगूरों को थोड़ी देर के लिए, आम तौर पर तीन से 24 घंटों के लिए छिलकों के संपर्क में पिसाई का विकल्प चुन सकते हैं। इससे छिलकों से जायके और टैनिन को निकालने (बहुत ज्यादा बेंटोनाइट मिलाये बगैर प्रोटीन के अवक्षेपण को प्रोत्साहित करने के लिए टैनिन को निकाल लिया जाता है) के साथ-साथ पोटेशियम आयन को निकालने में मदद मिलती है जो बाइटारटेरेट अवक्षेपण (टार्टर की क्रीम बनने) में भाग लेते हैं। इसके परिणाम स्वरूप जूस का पीएच (pH) भी बढ़ जाता है जो बहुत अधिक अम्लीय अंगूरों के लिए वांछनीय हो सकता है। यह आज की तुलना में 1970 के दशक में एक आम उपाय था, हालांकि अभी भी कैलिफोर्निया में कुछ सॉविग्नोन ब्लॉन्क और चार्दोने उत्पादकों द्वारा इस तरीके को आजमाया जाता है।रोज़ वाइन्स के मामले में फलों की पिसाई की जाती है और गहरे छिलकों को रस के संपर्क में उतनी देर तक रहने दिया जाता है जब तक कि उतना रंग ना निकल आये जितना कि वाइन निर्माता चाहता है। इसके बाद मस्ट (पल्प) को दबाया जाता है और फर्मेंटेशन की प्रक्रिया इस तरह पूरी की जाती है मानो कि वाइन निर्माता एक व्हाइट वाइन तैयार कर रहा था।खमीर सामान्य रूप से पहले से ही अंगूरों पर मौजूद रहती है जो अक्सर अंगूरों के बुकनीदार स्वरूप में दिखाई देता है। फर्मेंटेशन की प्रक्रिया इस प्राकृतिक खमीर के साथ पूरी की जा सकती है लेकिन चूंकि बिलकुल सटीक किस्म के मौजूद खमीर के आधार पर यह एक अप्रत्याशित परिणाम दे सकता है इसीलिये मस्ट के साथ अक्सर संवर्धित खमीर को मिलाया जाता है। वाइल्ड फर्मेंट्स के इस्तेमाल में आने वाली एक प्रमुख समस्या है फर्मेंटेशन की सम्पूर्ण प्रक्रिया पूरी होने में विफलता, जिसमिन शर्करा के कुछ अवशेष फर्मेंटेशन के बगैर रह जाते हैं। ऐसे में जब ड्राई वाइन प्राप्त करना होता है तो यह वाइन को मीठा बना सकता है। लगातार वाइल्ड फर्मेंट्स के कारण बाइ प्रोडक्ट के रूप में एक अप्रिय एसिटिक एसिड (विनेगार) उत्पन्न हो सकता है।फर्मेंटिंग रेड वाइन की सतह पर अंगूर के छिलकों की एक टोपी सी बन जाती है।प्राथमिक किण्वन के दौरान खमीर की कोशिकाएं मस्ट (पल्प) में मौजूद शर्करा पर पलती हैं और इसी कारण कार्बन डाइऑक्साइड गैस और अल्कोहल का उत्पादन कई गुणा बढ़ जाता है। किण्वन के दौरान तापमान का स्तर अंतिम उत्पाद के स्वाद के साथ-साथ किण्वन की गति दोनों को प्रभावित करता है। रेड वाइन के लिए तापमान आम तौर पर 22 से 25 डिग्री सेल्सियस तक और व्हाइट वाइन के लिए 15 से 18 डिग्री सेल्सियस तक होता है।[2] रूपांतरित किये गए प्रत्येक ग्राम शर्करा के लिए अल्कोहल की आधा ग्राम मात्रा तैयार होती है, इसीलिये 12% की अल्कोहल सांद्रता प्राप्त करने के लिए मस्ट में लगभग 24% शर्करा की मात्रा मौजूद होनी चाहिए. मस्ट में शर्करा की प्रतिशत मात्रा की गणना मापे गए घनत्व, मस्ट के वजन और एक विशिष्ट प्रकार के हाइड्रोमीटर की मदद से की जाती है जिसे सैकारोमीटर कहते हैं। अगर अंगूरों में शर्करा की मात्रा बहुत ही कम होती है जिससे कि अल्कोहल की वांछित प्रतिशत मात्रा प्राप्त नहीं हो पाती है तो ऐसे में चीनी मिलाई जा सकती है (चैप्टलाइजेशन). व्यावसायिक तौर पर वाइन तैयार करने में चैप्टलाइजेशन स्थानीय विनियमों के अधीन है।अल्कोहलिक फर्मेंटेशन के दौरान या बाद में मेलोलैक्टिक फर्मेंटेशन की प्रक्रिया भी पूरी की जाती है जिसके दौरान बैक्टेरिया के विशिष्ट स्ट्रेंस मैलिक एसिड को अपेक्षाकृत हल्के लैक्टिक एसिड में बदल देते हैं। इस प्रकार का फर्मेंटेशन अक्सर वांछित बैक्टीरिया के टीकों द्वारा शुरू किया जाता है।प्रेसिंगसंपादित करेंमिडगल हाएमेक में एक प्राचीन वाइनप्रेस, जिसका प्रेस करने वाला हिस्सा मध्य में है और एकत्रण करने वाला हिस्सा निचले बाएं सिरे पर है।प्रेसिंग अंगूरों या अंगूर के छिलकों से रस या वाइन अलग करने के क्रम में अंगूरों या पोमैस पर दबाव डालने की एक प्रक्रिया है। वाइन बनाने में प्रेसिंग हमेशा एक आवश्यक कार्य नहीं होता है, जब अंगूरों की पिसाई होती है तो रस एक पर्याप्त मात्रा में तुरंत अलग हो जाता है (जिसे फ्री-रन जूस कहते हैं) जिसे विनिफिकेशन के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। आम तौर पर यह फ्री-रन जूस दबाकर निकाले गए रस की तुलना में उन्नत कोटि का होता है। हालांकि ज्यादातर वाइनरियाँ अपने (गैलन) प्रति टन उत्पादन को बढाने के लिए प्रेसों का उपयोग करती हैं क्योंकि प्रेस से निकाला गया रस अंगूर से निकाले गए रस की कुल मात्रा के 15%-30% का प्रतिनिधित्व कर सकता है।प्रेस की कार्यप्रणाली में अंगूर के छिलकों या साबुत अंगूर के गुच्छों को एक कठोर स्थिर सतह और एक गतिशील सतह के बीच रखा जाता है और दोनों सतहों के बीच आयतन धीरे-धीरे कम होता जाता है। आधुनिक प्रेस प्रत्येक चक्र प्रेस पर लगाने वाले समय और दबाव को निर्धारित करते हैं जो आम तौर पर 0 बार से 2.0 के बीच नियंत्रित रहती है। कभी-कभी वाइन निर्माता ऐसे दबाव को चुनते हैं जो प्रेस किये गए रस के प्रवाह को अलग कर देता है जिसे "प्रेस कट" तैयार करना कहते है। चूंकि दबाव छिलकों से निकले टैनिन की मात्रा को बढ़ा देता है जिससे रस में इसकी मात्रा बढ़ जाती है, इसीलिये प्रेस किया गया रस अक्सर बहुत अधिक टैनिक या कड़क हो जाता है। बेरी में अंगूर के रस के तत्वों की स्थिति के कारण (पानी और अम्ल मुख्य रूप से मिजोकार्प या पल्प में पाया जाता है, जबकि टैनिन मुख्यतः पेरिकार्प या छिलकों या बीजों में मौजूद होते हैं) प्रेस किये गए रस या वाइन में अम्ल की मात्रा कम हो जाती है और फ्री-रन जूस की तुलना में इसका पीएच (pH) मान ज्यादा होता है।आधुनिक तरीके से वाइन उत्पादन की शुरुआत से पहले ज्यादातर प्रेस लकड़ी से बने बास्केट प्रेस होते थे और इन्हें हाथों से संचालित किया जाता था। बास्केट प्रेस एक निर्धारित प्लेट के ऊपर लकड़ी के स्लैट्स के एक सिलेंडर से बने होते हैं जिसमें एक चलायमान प्लेट होता है जिसे नीचे की ओर धकेला जा सकता है (आम तौर पर एक सेन्ट्रल रैचेटिंग थ्रेडेड स्क्रू द्वारा). प्रेस संचालक अंगूरों या पोमैस को लकड़ी के सिलेंडर में भर देता है, ऊपरी प्लेट को अपनी जगह पर रख देता है और इसे तब तक नीचे किये रहता है जब तक की रस लकड़ी के स्लैट्स से प्रवाहित नहीं होने लगता है। जब रस का प्रवाह कम हो जाता है तो प्लेट को एक बाद फिर रेचेट कर नीचे लाया जाता है। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक कि प्रेस संचालक यह नहीं तय कर लेता है कि प्रेस किये गए रस या वाइन की गुणवता मानक स्तर से कम हो गयी है या समूचा रस दबाकर निकाल लिया गया है। 1990 के दशक की शुरुआत से ऐतिहासिक बास्केट प्रेसों की अच्छी तरह प्रेसिंग को दोहराने की चाह में उच्चस्तरीय-अंतिम उत्पादकों के जरिये आधुनिक यांत्रिक बास्केट प्रेसों को पुनर्जीवित किया गया है। क्योंकि बास्केट प्रेस एक अपेक्षाकृत कॉम्पैक्ट डिजाइन के होते हैं, प्रेस केक रस के प्रेस से निकलने से पहले प्रवाहित होने के लिए एक अपेक्षाकृत लंबा मार्ग प्रदान करता है। बास्केट प्रेस की वकालत करने वालों का यह मानना है कि अंगूर या पोमैस केक से होकर गुजरने वाला यह अपेक्षाकृत लंबा मार्ग उन ठोस पदार्थों के लिए एक फ़िल्टर के रूप में कार्य करता है जो अन्यथा प्रेस जूस की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं।वर्ल्ड हेरिटेज वाइनयार्ड्स के सामने लकड़ी की एक प्राचीन वाइन प्रेस.रेड वाइन के मामले में प्राथमिक किण्वन के बाद मस्त को प्रेस किया जाता है जो घोल में से छिलकों या अन्य ठोस पदार्थों को अलग कर देता है। व्हाइट वाइन की स्थिति में घोल को किण्वन से पहले मस्ट से अलग कर लिया जाता है। रोज़ वाइन के मामले में वाइन को रंग देने के लिए छिलकों को एक छोटी अवधि के लिए इसके संपर्क में रहने दिया जाता है, ऐसी स्थिति में मस्ट को भी प्रेस किया जा सकता है। वाइन को कुछ समय तक रखने या पुराना होने देने के बाद, वाइन को मृत खमीर और बचे हुए किसी भी ठोस पदार्थ (जिसे लीस कहते हैं) से अलग कर लिया जाता है और इसे एक नए कंटेनर में स्थानांतरित कर दिया जाता है जहाँ फर्मेंटेशन की अतिरिक्त प्रक्रियाओं को पूरा किया जा सके.पिजियेजसंपादित करेंपिजियेज खुले किण्वन टैंकों में अंगूरों की परंपरागत स्टोम्पिंग के लिए वाइन उत्पादन का एक फ्रांसीसी शब्द है। कुछ विशेष प्रकार का वाइन तैयार करने के लिए अंगूरों को एक क्रशर में डालकर चलाया जाता है और उसके बाद इस रस को खुले किण्वन टैंकों में निकाल लिया जाता है। किण्वन शुरू हो जाने के बाद अंगूर के छिलकों को किण्वन की प्रक्रिया में निकले कार्बन डाइऑक्साइड गैसों द्वारा सतह की ओर धकेल दिया जाता है। छिलकों और अन्य ठोस पदार्थों की इस परत को कैप के रूप में जाना जाता है। चूंकि छिलके टैनिन्स के स्रोत होते हैं, कैप को प्रतिदिन घोल में मिश्रित किया जाता है या पारंपरिक रूप से वैट के माध्यम से स्टोम्पिंग द्वारा "पंच" किया जाता है।शीत और ताप स्थिरीकरणसंपादित करेंइन्हें भी देखें: Clarification and stabilization of wineशीत स्थिरीकरण (कोल्ड स्टेबिलाइजेशन) एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका उपयोग वाइन बनाते समय वाइन से टारट्रेट क्रिस्टलों (सामान्यतः पोटेशियम बाइटारट्रेट) को कम करने में किया जाता है। ये टारट्रेट क्रिस्टल रेत के साफ़ कणों जैसे दिखाई देते हैं और इन्हें "वाइन क्रिस्टल" या वाइन "डायमंड" के नाम से भी जाना जाता है। इनका निर्माण टारटेरिक अम्ल और पोटेशियम पोटेशियम के संयोग से होता है और ये वाइन में तलछट के रूप में दिखाई देते हैं हालांकि ये तलछट नहीं होते हैं। किण्वन के बाद शीत स्थिरीकरण प्रक्रिया के दौरान वाइन के तापमान को 1-2 सप्ताह तक हिमांक बिंदु (फ्रीजिंग) तक गिरा दिया जाता है। इससे क्रिस्टल वाइन से अलग हो जाते हैं और पात्र (होल्डिंग वेसेल) के किनारों से चिपक जाते हैं। जब वाइन पात्र से निकाली जाती है टारट्रेट पात्र में ही रह जाते हैं। इनका निर्माण उन वाइन की बोतलों में भी हो सकता है जिनका भंडारण अत्यंत ठंडी परिस्थितियों में किया गया हो."ताप स्थिरीकरण" के दौरान अस्थिर प्रोटीनों को बेंटोनाइट में अवशोषित करके अलग पृथक कर लिया जाता है, इस तरह उन्हें बोतलबंद वाइन में अवक्षेपित होने से बचाया जाता है।[2]द्वितीयक किण्वन और समूह परिपक्वन (सेकंडरी फर्मेंटेशन और बल्क एजिंग)संपादित करेंथ्री कौइर्स विनयार्ड, ग्लूस्टरशायर, इंग्लैंड में स्टेनलेस स्टील फर्मेंटेशन वेसेल तथा नए ओक बैरलद्वितीयक किण्वन और परिपक्वन प्रक्रिया के दौरान, जिसमें तीन से छः महीने लगते हैं, किण्वन की प्रक्रिया बहुत धीरे-धीरे जारी रहती है। वाइन को ऑक्सीकरण से बचाने के लिए वाइन एक वायुरोधक (एयरलॉक) में रखी जाती है। अंगूरों के प्रोटीनों का विखंडन होता है और शेष खमीर कोशिकाओं एवं दूसरे महीन कणों को तलछट में बैठने दिया जाता है। पोटेशियम बाइटारट्रेट भी तलछट में बैठ जाएगा, बोतलबंद करने के बाद (हानिरहित) टारट्रेट क्रिस्टलों को प्रकट होने से बचाने के लिए प्रक्रिया को शीत स्थिरीकरण के ज़रिये और बढ़ाया जा सकता है। इन प्रक्रियाओं का परिणाम यह होता है कि धुंधली वाइन साफ़ दिखने लगती है। मैल को हटाने के लिए इस प्रक्रिया के दौरान वाइन को निचोड़ा भी जा सकता है।द्वितीयक किण्वन आम तौर पर या तो कई घन मीटर आयतन वाले जंगरोधी स्टील के बर्तनों में या ओक के बैरलों में होता है, यह वाइन उत्पादक के उद्देश्यों पर निर्भर करता है। ओक रहित वाइन को स्टेनलेस स्टील या दूसरे ऐसे पदार्थ के बैरलों में किण्वित किया जाता है जिनका वाइन के अंतिम स्वाद पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. इच्छित स्वाद के अनुसार इसे स्टेनलेस स्टील में किण्वित करके थोड़े समय के लिए ओक में रखा जा सकता है या फिर पूरा किण्वन स्टेनलेस स्टील के बर्तन में ही किया जा सकता है। पूरी तरह से लकड़ी के बैरलों की बजाय ग़ैर-लकड़ी के बैरल में ओक की चिप्पियों को मिलाया जा सकता है। यह प्रक्रिया मुख्य रूप से सस्ती वाइन में इस्तेमाल की जाती हैशौकिया वाइन बनाने वाले अक्सर वाइन उत्पादन के लिए शीशे की बड़ी बोतलों (कारबॉयज) का इस्तेमाल करते हैं; इन बोतलों (जिन्हें कभी-कभी डेमीजॉन्स कहा जाता है) की क्षमता 4.5 से 54 लीटर (1.2-14.3 अमेरीकी गैलन) तक होती है। इस्तेमाल किये जाने वाले पात्र का प्रकार, बनाई जाने वाली वाइन की मात्रा, इस्तेमाल किये जाने वाले अंगूरों और वाइन निर्माता के इरादों पर निर्भर करता है।मेलोलैक्टिक किण्वनसंपादित करेंमेलोलैक्टिक किण्वन तब होता है जब लैक्टिक अम्ल के जीवाणु मैलिक अम्ल को उपापचय (मेटाबोलाइज) कर लैक्टिक अम्ल और कार्बन डाईआक्साइड बनाते हैं। यह क्रिया या तो स्वेच्छा से पूरी की जाती है जिसमें विशेष रूप से संवर्धित किये गए जीवाणुओं की प्रजाति को परिपक्व हो रही वाइन में मिलाया जाता है या फिर यह क्रिया संयोगवश भी हो सकती है अगर असंवर्धित लैक्टिक अम्ल के जीवाणु पहले से ही मौजूद हों.मेलोलैक्टिक किण्वन उस वाइन के स्वाद को बेहतर बना सकता है जिसमें मैलिक अम्ल का स्तर अधिक हो क्योंकि मैलिक अम्ल की अधिक सांद्रता आम तौर पर अरुचिकर और तीखे स्वाद के एहसास की वजह बनती है, जबकि लैक्टिक अम्ल अधिक हल्का और कम तीखा माना जाता है।यह प्रक्रिया अधिकतर रेड वाइन में इस्तेमाल की जाती है जबकि व्हाइट वाइन में यह विवेकाधीन होती है।प्रयोगशाला संबंधी परीक्षणसंपादित करेंवाइन चाहे टैंकों में परिपक्व हो रही हो या बैरलों में, वाइन की स्थिति जानने के लिए समय-समय पर प्रयोगशाला मे परीक्षण किये जाते हैं। सामान्य परीक्षणों में °ब्रिक्स, पीएच (pH), टाइट्रेटेबल एसिडिटी, अवशिष्ट शर्करा, मुक्त या उपलब्ध सल्फर, कुल सल्फर, वाष्पीय अम्लता और अल्कोहल प्रतिशत शामिल हैं। अतिरिक्त परीक्षणों में टार्टर के क्रीम का क्रिस्टलीकरण (पोटेशियम हाईड्रोजन टारट्रेट) और ताप अस्थिर प्रोटीन का अवक्षेपण शामिल है, यह अंतिम परीक्षण केवल व्हाइट वाइनों तक ही सीमित है। ये परीक्षण अक्सर वाइन बनाने की पूरी अवधि में और बोतलीकरण से पहले भी संपादित किये जाते हैं। इन परीक्षणों के परिणामों की प्रतिक्रिया में तब वाइन निर्माता सही उपचार प्रक्रिया के बारे में निर्णय ले सकता है, उदाहरण के लिए अधिक मात्रा में सल्फर डाइऑक्साइड को मिलाना. संवेदी परीक्षण भी किये जाते हैं और फिर इनके आधार पर वाइन निर्माता उपचारात्मक कदम उठा सकता है जैसे की वाइन के स्वाद को नरम करने के लिए प्रोटीन मिलाना.ब्रिक्स अंगूर के रस में ठोस घुलनशील का एक मापक है और यह केवल शर्करा का ही नहीं बल्कि कई दूसरे घुलनशील पदार्थों का भी प्रतिनिधित्त्व करता है, जैसे कि लवण, अम्ल और टैनिन, जिन्हें कभी-कभी पूर्ण घुलनशील ठोस (टीएसएस) कहा जाता है। हालांकि शर्करा सबसे ज्यादा मात्र में उपस्थित रहने वाला यौगिक है और इसलिए सारे व्यवहारिक उद्देश्यों से ये इकाइयां शर्करा स्तर का एक मापन हैं। अंगूरों में शर्करा का स्तर केवल इसलिए महत्त्वपूर्ण नहीं है कि यह वाइन में अंतिम रूप से अल्कोहल के अंश का निर्धारण करता है बल्कि इसलिए भी कि यह अंगूरों की परिपक्वता का अप्रत्यक्ष सूचकांक है। ब्रिक्स (संक्षेप में बीएक्स (Bx)) घोल के ग्राम के प्रति 100 ग्राम में मापा जाता है, इसलिए 20 Bx का मतलब है कि 100 ग्राम रस में 20 ग्राम घुलनशील यौगिक मौजूद हैं। अंगूरों में शर्करा की मात्रा के दूसरे सामान्य मापक भी हैं, स्पेसिफिक ग्रेविटी (विशिष्ट घनत्व), ईशले (जर्मनी) और ब्यूम (फ़्रांस). फ्रांसीसी ब्यूम (संक्षेप में Be° या Bé°) में यह लाभ है कि एक Bé° लगभग एक प्रतिशत अल्कोहल का मान देता है। साथ ही एक Be° 1.8 ब्रिक्स के बराबर होता है यानी प्रति सौ ग्राम में 1.8 ग्राम शर्करा. इससे यह निर्णय लेने में मदद मिलती है कि अगर रस में शर्करा कम है तो एक प्रतिशत अल्कोहल पाने के लिए प्रति 100 मि.ली. में 1.8 ग्राम मिलाया जाए या 18 ग्राम प्रति लीटर. इस प्रक्रिया को चेप्टलाइजेशन कहा जाता है और यह कई देशों में अवैध है (लेकिन घरेलू वाइन उत्पादकों के लिए पूर्णतः स्वीकार्य है). आम तौर पर ड्राई टेबल वाइन बनाने के लिए 20 से 25 के बीच Bx वांछनीय है (11 से 14 Be° के समतुल्य).शर्करा की मात्रा को देखने के लिए तुरंत संकेत अंक हासिल करने के क्रम में ब्रिक्स परीक्षण या तो प्रयोगशाला में या खेतों में ही किया जा सकता है। ब्रिक्स को आम तौर पर रेफ्रेक्टोमीटर से मापा जाता है जबकि दूसरी विधियाँ हाईड्रोमीटर का प्रयोग करती हैं। सामान्यतः हाईड्रोमीटर एक सस्ता विकल्प है। शर्करा के अधिक शुद्ध मापन के लिए लिए यह याद रखना ज़रूरी है कि सभी मापन उस तापमान से प्रभावित होते हैं जिस तापमान पर रीडिंग ली गयी है। उपकरणों के आपूर्तिकर्ता आम तौर पर संशोधन चार्ट उपलब्ध करवाते हैं।वाष्पशील अम्लता परीक्षण वाइन में वाष्प द्वारा आसवित होने वाले अम्ल की किसी तरह की उपस्थिति को सुनिश्चित करता है। एसिटिक एसिड मुख्य रूप से मौजूद होता है लेकिन लैक्टिक, ब्यूटिरिक, प्रोपियोनिक और फॉर्मिक एसिड भी पाए जा सकते हैं। आम तौर पर यह परीक्षण इन अम्लों की जाँच एक कैश स्टील में करता है लेकिन एचपीसीएल, गैस क्रोमैटोग्राफी और एंजाइमेटिक विधि जैसे नए तरीके उपलब्ध हैं। अंगूरों में पायी जाने वाली वाष्पशील अम्लता की मात्रा नगण्य होती है क्योंकि यह सूक्ष्मजीवों के उपापचय का एक बाइ-प्रोडक्ट होता है। यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि एसिटिक एसिड जीवाणु को विकसित होने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। वाइन के कंटेनरों में से हवा को पूरी तरह निकाल लेने के अलावा सल्फर डाइऑक्साइड मिलाने से जीवाणुओं के विकसित होने की गति नियंत्रित हो जाती है। खराब अंगूरों को निकाल देने से भी एसिटिक एसिड जीवाणु से संबंधित समस्याओं से बचा जा सकता है। सल्फर डाइऑक्साइड के प्रयोग और कम वाष्प अम्ल (वी.ए.) उत्पादित करने वाले सैकारोमाइसेज के अंश को मिलाने से एसिटिक एसिड उत्पादन करने वाली खमीर प्रभावित हो सकती है। वाइन से अस्थिर अम्लता को हटाने के लिए एक अपेक्षाकृत नया तरीका रिवर्स ऑस्मोसिस है। सम्मिश्रण (ब्लेंडिंग) से भी मदद मिल सकती है - उच्च वाष्पशील अम्लता (वी.ए.) वाली वाइन को छानकर (जिम्मेदार सूक्ष्म जीवों को हटाने के लिए) कम वाष्पशील अम्लता (वी.ए.) वाली वाइन में मिलाया जा सकता है ताकि एसिटिक एसिड का स्तर संवेदी सीमा से नीचे रहे.ब्लेंडिंग और फाइनिंग (मिश्रण और शोधन)संपादित करेंवांछित स्वाद प्राप्त करने के क्रम में बॉटलिंग से पहले विभिन्न बैचों के वाइन को मिश्रित किया जा सकता है। वाइन निर्माता विभिन्न परिस्थितियों में तैयार किए गए विभिन्न अंगूरों और बैचों के वाइनों को मिश्रित कर कथित कमियों को दूर कर सकता है। इस तरह के समायोजन अम्ल या टैनिन के स्तरों के समायोजन की तरह अत्यंत सरल और एक सुसंगत स्वाद प्राप्त करने के लिए विभिन्न किस्मों या विंटेजेज की ब्लेंडिंग की तरह अत्यंत जटिल भी हो सकते हैं।वाइन उत्पादन के दौरान टैनिन्स को हटाने, कसैलापन को दूर करने और उन सूक्ष्मदर्शी कणों को निकालने के लिए जो वाइन को खराब कर सकते हैं, फाइनिंग एजेंट्स का इस्तेमाल किया जाता है। कौन सा फाइनिंग एजेंट इस्तेमाल किया जाना है यह वाइन निर्माता द्वारा तय किया जाता है और इसमें अलग-अलग उत्पाद के अनुसार और यहाँ तक कि अलग-अलग बैच के अनुसार अंतर हो सकता है (आम तौर पर यह उस विशेष वर्ष के अंगूरों पर निर्भर करता है).[3]वाइन उत्पादन में जिलेटिन का उपयोग सदियों से किया जा रहा है और इसे वाइन के शोधन या शुद्धिकरण के लिए एक पारंपरिक विधि के रूप में मान्यता दी जाती है। यह टैनिन तत्व को कम करने के लिए भी आम तौर पर सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला एजेंट है। सामान्यतः वाइन में कोई भी जिलेटिन बचा नहीं रह जाता है क्योंकि यह वाइन के तत्वों के साथ प्रतिक्रया करता है, क्योंकि शुद्धिकरण के बाद यह एक तलछट बनाता है जिसे बॉटलिंग से पहले छानकर निकाल दिया जाता है।जिलेटिन के अलावा वाइन के लिए अन्य फाइनिंग एजेंटों को अक्सर जानवरों या मछलियों के उत्पादों से तैयार किया जाता है जैसे कि माइक्रोनाइज्ड पोटैशियम कैसिनेट (कैसिन दूध का प्रोटीन है), अण्डों के सफ़ेद भाग, हड्डियों की राख, बैल का रक्त, इसिंग्लास (स्ट्रजन ब्लैडर), पीवीपीपी (एक कृत्रिम यौगिक), लाइसोजाइम और स्किम मिल्क पाउडर.[3]कुछ सुगंधि युक्त वाइनों में शहद या अंडे के यॉक से निकाले गए तत्व मौजूद होते हैं।[3]गैर-पशु-आधारित फिल्टरिंग एजेंटों को भी अक्सर इस्तेमाल किया जाता है जैसे कि बेंटोनाइट (एक ज्वालामुखी संबंधी मिट्टी से बना फिल्टर), डायएटमेशियस अर्थ, सेलूलोज़ पैड, कागज के फिल्टर और झिल्लीदार फिल्टर (सामान आकार की छिद्रों वाली प्लास्टिक पॉलीमर सामग्री की पतली फिल्में).परिरक्षक (प्रेजरवेटिव्स)संपादित करेंवाइन बनाने में इस्तेमाल होने वाले सबसे आम परिरक्षक है सल्फर डाइऑक्साइड जिसे सोडियम या पोटेशियम मेटाबाइसल्फेट मिलाकर प्राप्त किया जाता है। एक अन्य उपयोगी परिरक्षक पोटेशियम सोर्बेट है।सल्फर डाइऑक्साइड के दो प्रमुख कार्य हैं, पहला यह एक सूक्ष्मजीव रोधी एजेंट है और दूसरा यह एक ऑक्सीकरण रोधी है। व्हाइट वाइन तैयार करने में इसे किण्वन से पहले और अल्कोहलिक किण्वन की प्रक्रिया पूरी होने के तुरंत बाद मिलाया जा सकता है। अगर इसे अल्कोहलिक फारमेंट के बाद मिलाया जाता है तो यह मेलोलैक्टिक फर्मेंटेशन, बैक्टीरिया को होने वाले नुक़सान से बचा सकता है या इसे रोक सकता है और ऑक्सीजन के हानिकारक प्रभावों के खिलाफ सुरक्षा में मदद कर सकता है। 100 मिलीग्राम प्रति लीटर (सल्फर डाइआक्साइड के) तक मिलाया जा सकता है लेकिन उपलब्ध या स्वतंत्र सल्फर डाइआक्साइड को भी एस्पिरेशन विधि से मापा जाना चाहिए और इसे 30 मिलीग्राम प्रति लीटर पर समायोजित किया जाना चाहिए. उपलब्ध सल्फर डाइआक्साइड को बॉटलिंग के समय तक इस स्तर पर बनाए रखा जाना चाहिए. रोज़ वाइन्स के लिए इसे कम मात्रा में मिलाया जा सकता है और उपलब्धता स्तर 30 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक नहीं होना चाहिए.रेड वाइन तैयार करने में रंग को स्थिर होने देने के लिए फारमेंट से पहले सल्फर डाइऑक्साइड को उच्च स्तरों (100 मिलीग्राम प्रति लीटर) पर इस्तेमाल किया जा सकता है अन्यथा इसे मेलोलैक्टिक फारमेंट की समाप्ति पर उपयोग किया जाता है और यह उसी तरह कार्य करता है जैसा कि व्हाइट वाइन में करता है। हालांकि लाल धब्बों की ब्लीचिंग को रोकने के लिए कम मात्रा में (20 मिलीग्राम प्रति लीटर मान लें) इसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए और कायम रहने वाला स्तर तकरीबन 20 मिलीग्राम प्रति लीटर होना चाहिए. इसके अलावा हल्के ऑक्सीकरण को दूर करने और एसिटिक एसिड जीवाणु के विकास को रोकने के लिए अल्कोहलिक फर्मेंट के बाद और मैलोलैक्टिक फर्मेंट से पहले रेड वाइन में इसकी छोटी मात्राएं (मानो कि 20 मिलीग्राम प्रति लीटर) मिलाई जा सकती हैं।सल्फर डाइऑक्साइड के उपयोग के बिना वाइन्स में आसानी से जीवाणुओं के नष्ट होने की समस्या उत्पन्न हो सकती है, भले ही वाइन तैयार करने का तरीका कितना ही स्वच्छ क्यों ना हो.पोटेशियम सोर्बेट, विशेष रूप से बोतलों में बंद मीठी वाइनों के लिए खमीर सहित कवक के विकास को नियंत्रित करने में प्रभावी होता है। हालांकि एक संभावित खतरा सोर्बेट के मेटाबोलिज्म से एक पोटेंट के जेरानियोल का है और यह बहुत ही अप्रिय उपोत्पाद (बाइ-प्रोडक्ट) है। इससे बचने के लिए या तो वाइन को स्टेराइल कर बोतलबंद किया जाना चाहिए या फिर इसमें इतना सल्फर डाइऑक्साइड होना चाहिए कि यह जीवाणु के विकास को रोक सके. स्टेराइल बॉटलिंग में फिल्टरेशन का उपयोग भी शामिल है।फिल्टरेशनसंपादित करेंवाइन बनाने में फिल्टरेशन का इस्तेमाल दो उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किया जाता है, शुद्धिकरण और सूक्ष्मजीव स्थिरीकरण. शुद्धिकरण में वाइन के प्रत्यक्ष स्वरुप को प्रभावित करने वाले बड़े कणों को हटा लिया जाता है। सूक्ष्मजीव स्थिरीकरण में वाइन की स्थिरता को प्रभावित करने वाले जीवों को हटाया जाता है और इसलिए पुनः-किण्वन या नुक़सान की संभावना कम हो जाती है।शुद्धिकरण की प्रक्रिया का संबंध कणों को हटाने से है; खुरदरी पॉलिशिंग के लिए जो 5-10 माइक्रोमीटर से ज्यादा बड़े होते हैं, शुद्धि या पॉलिशिंग के लिए जो 1-4 माइक्रोमीटर से ज्यादा बड़े होते हैं। सूक्ष्मजीव स्थिरीकरण के लिए कम से कम 0.65 माइक्रोमीटर फिल्टरेशन की आवश्यकता होती है। हालांकि इस स्तर पर फिल्टरेशन वाइन के रंग और स्वरुप को हल्का कर सकते हैं। सूक्ष्मजीव स्थिरीकरण स्टेरिलिटी का संकेत नहीं देता है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि एक पर्याप्त मात्रा में खमीर और बैक्टीरिया को हटा लिया गया है।बोतलबंद करना (बॉटलिंग)संपादित करेंवाइन को सुरक्षित और बोतल में अवांछित किण्वन को रोकने में मदद करने के लिए अंत में सल्फाइट की कुछ मात्रा मिलायी जाती है। इसके बाद वाइन की बोतलों को पारंपरिक रूप से कॉर्क के जरिये सीलबंद किया जाता है, हालांकि वाइन को बोतलबंद करने के लिए वैकल्पिक उपाय भी आजमाए जाते हैं जैसे कि सिंथेटिक कॉर्क और स्क्रूकैप, जिनमे कॉर्क की गंदगी आने की संभावना कम होती है और ये तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं।[4] अंत में बोतल के सिरे पर एक कैप्सूल[5] लगाया जाता है और मजबूती से सीलबंद करने के लिए उसे गर्म[6] किया जाता है।वाइन उत्पादक (वाइन मेकर्स)संपादित करेंपरंपरागत रूप से इन्हें विंटनर के के नाम से जाना जाता है; वाइन के उत्पादन में शामिल व्यक्ति को वाइनमेकर कहा जाता है। इन्हें आम तौर पर वाइनरियों या वाइन कंपनियों द्वारा नियुक्त किया जाता है।इन्हें भी देखेंसंपादित करेंफ्रांस में एक वाइन लेबलिंग मशीन.बाल वनिता महिला आश्रमवाइन संबंधी शब्दावलीवाइन में एसिडशैम्पेन का उत्पादनगवर्नोवाइन में शक्करसन्दर्भ

मदिरा उत्पादन By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब किसी अन्य भाषा में पढ़ें डाउनलोड करें ध्यान रखें संपादित करें मदिरा उत्पादन  से आशय  मदिरा   ( शराब ) के उत्पादन की  प्रक्रिया  से है जो  अंगूरों  या अन्य सामग्रियों के चुनाव से शुरू होकर तैयार मदिरा को बोतलबंद करने के साथ समाप्त होती है। यद्यपि अधिकांश मदिरा अगूरों से बनायी जाती है, इसे अन्य फलों अथवा विषहीन पौध सामग्रियों से भी तैयार किया जा सकता है। मीड एक प्रकार की वाइन है जिसमें पानी के बाद शहद सबसे प्रमुख घटक होता है। अंगूर की वाइन. मदिरा उत्पादन को दो सामान्य श्रेणियों में बाँटा जा सकता है: स्टिल वाइन उत्पादन (कार्बनीकरण के बिना) और स्पार्कलिंग वाइन उत्पादन (कार्बनीकरण के साथ). मदिरा तथा वाइन उत्पादन के विज्ञान को ओनोलोजी के नाम से जाना जाता है (अमेरिकी अंग्रेजी में, एनोलोजी). प्रक्रिया संपादित करें एक अंगूर की संरचना, प्रत्येक दबाव से निकाले गए अंशों को दिखाया गया है। कटाई के बाद अंगूरों को एक वाइनरी में रखा जाता है और इन्हें शुरुआती फरमेंट (किण्वन) के लिए तैयार किया जाता है, इस स्तर पर रेड वा...